भाषाई प्रदूषण मकड़जाल से निकले

डा. नीरज भारद्वाज

प्रदूषण का अर्थ साधारण शब्दों में समझें तो यही है कि जो दूषित करे अर्थात जो गंदा करे या गंदगी फैलाये। इसलिए शब्द बने वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि। हम ध्वनि प्रदूषण की बात करें तो इसमें हम गाडि़यों का हार्न तेज बजाने, सड़कों पर गाडि़यों की आवाजें, कल कारखानों से मशीनों की आवाजें आदि को रखते हैं लेकिन ध्वनि प्रदूषण में एक और अंग सबसे महत्वपूर्ण है जिस पर हम कम ध्यान देते हैं। वह है अपशब्दों का प्रयोग, अश्लीलता भरे शब्द या अश्लील बातें आदि। जब हम शिक्षण की दृृष्टि से बात करते हैं तो विद्यालय में हमें भाषाई कौशल बताये और समझाए जाते हैं। सुनना इनमें सबसे महत्वपूर्ण है और यही प्रथम कौशल भी है।

हम बच्चों को समझाते भी हैं कि जो सुन नहीं सकता, वह बोल भी नहीं सकता अर्थात सुनने से ही बोलने का अर्थ है। कहने का तात्पर्य है कि ध्वनि हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। भाषाई विद्वान मानते हैं कि जो शब्द हमने सुना या पढ़ा नहीं है, हम उस शब्द को बोल भी नहीं सकते। कहने का तात्पर्य यह है कि सुनना हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है अर्थात इसमें ध्वनि ही सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन हमारे कानों में ध्वनि अर्थात शब्द या भाषा गलत तरीके के जाएंगे तो मस्तिष्क में विचार की जगह विकार ही पैदा होगा।

शब्द की शक्ति अपार है। शब्दों या भाषा के चलते ही जीवन सुंदर बनता है और जीवन बिखर भी सकता है। भाषा से ही व्यक्ति की पहचान होती है। इसके कितने ही उदाहरण हमारी कथा कहानियों में मिल जाते हैं। वर्तमान संदर्भ में भाषाई प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ रहा है अर्थात अपशब्दों या अश्लील बातों का बाजार बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। यह हमारे देश और संस्कृति के लिए बहुत ही घातक है। इसके साथ ही झूठ का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है। झूठ बोल-बोल कर सत्ता प्राप्त की जा रही है, स्वीट झूठ। यह झूठी बातें भी भाषाई प्रदूषण का अंग हैं।

हम ध्वनि प्रदूषण के अलग-अलग तत्वों की बात करें और उसमें अपशब्दों तथा अश्लीलता को समझंे तो सिनेमा ने भाषाई मर्यादा को तार-तार कर रखा है, यह बात सभी फिल्मों पर लागू नहीं होती है लेकिन फिर भी बहुत सारी फिल्में और उनके डायलाग या दोनों ने सारी हदें पार कर दी हैं। कितने ही अश्लील डायलाग और गाने सुबह से शाम तक कहीं न कहीं हमारे कानों को सुनाई पड़ ही जाते हैं। रेडियो पर भी कितने ही रेडियो जाकी किसी साधारण जन से बात करते-करते तूं तड़ाक से गाली गलौज तक पहुँचाने का काम कर देते हैं। साधारण जन उसे अपशब्द कहता रहता है और वह वहीं स्टूडियो में बैठा-बैठा उसके साथ ऐसी बातें सुनता रहता है जिसे श्रोता सुन रहा होता है। कई बार तो बहुत सारे अपशब्द सीधे श्रोता के कानों तक आ जाते हैं। साहित्य उठाकर देखा तो कितने ही साहित्यकार नग्नवाद और अतिनग्नवाद का सहारा लेकर बिल्कुल सड़क छाप लिख रहे हैं। उन्हें सराहा भी जा रहा है।
सोशल मीडिया के लगभग सभी प्लेटफार्म तो अपशब्दों का मानो अखाड़ा ही बन गए हैं। भाषाई अश्लीलता बाहर निकल-निकल कर आती है। प्रधानमंत्राी का भाषण हो, मुख्यमंत्राी का या मंत्राी आदि का, लोग उसके भी कमेंट बाक्स में अपशब्दों को लिखते देर नहीं लगाते हैं। ओटीटी और वेब सीरीज ने तो सारी हदें पार कर रखी हैं। सरकार इसके बारे में कई बार कह चुकी है लेकिन कोई मानता दिखाई नहीं दे रहा है। भाषाई प्रदूषण के साथ-साथ यह फिल्में अश्लील दृृश्यों को भी दर्शक तक बहुत ही तेजी से पहुँचा रही हैं।

इन सब भयावह दृृश्य और ऊटपटांग बातों को सुनते हुए तो कई बार ऐसा लगता है कि हम कौन से युग में जी रहे हैं। भारतवर्ष में ही हैं या कहीं और आ गए हैं। भारतवर्ष की पावन भूमि में तो लोग पवित्रा नदियों में स्नान करते हुए अपने मुख में उस नदी का जल पहले डालते हैं, उसे प्रणाम करते हैं। बाहर से निर्मल होने के साथ-साथ हमें अंदर से भी निर्मल करना, ऐसी प्रार्थना की जाती हैं। मंदिर में पुजारी भी गंगा जल में तुलसी दल डालकर हर एक भक्त को उस पवित्रा जल का पान कराकर फिर प्रसाद देता है। तन-मन सभी कुछ पवित्रा।
विचार करें तो अमर्यादित भाषा के प्रयोग से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। आने वाली पीढि़याँ भाषाई प्रदूषण से दूषित हो रही हैं। क्यों हम भाषाई प्रदूषण पर आँखें बंद किए हुए हैं? सरकार को और हमें इस प्रदूषण के खिलाफ आवाज उठानी होगी। हालांकि सरकार ओटीटी प्लेटफार्म पर तो लगाम लगाने की बातें करती हैं लेकिन अन्य स्रोतों पर भी लगाम लगनी चाहिए। जैसे वायु प्रदूषण को दूर करने के लिए वृक्ष लगाए जाते हैं, जल प्रदूषण को दूर करने के लिए, नदियों को बचाना और अपने आसपास की नदियों की रक्षा करना, भूमि प्रदूषण को बचाने के लिए भूमि को गंदा न होने देना, कैमिकल का प्रयोग न करना आदि बातें करते हैं, ठीक वैसे ही भाषाई प्रदूषण से बचने के लिए हमें बच्चों को अपने वेद, शास्त्रा, गुरुग्रंथ साहिब आदि कितने ही धार्मिक ग्रंथों को बताना और पढ़ाना होगा जिससे आने वाली पीढ़ी भाषाई प्रदूषण के इस मकड़जाल से निकल सके और समाज को एक स्वच्छ वातावरण दे सके। विचारणीय है कि आज है तो कल है। यदि आज ही दूषित है तो कल और भयानक दूषित होगा, यह भी हमें समझ लेना चाहिए।

India Edge News Desk

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